अर्गला स्तोत्रम् | Argala Stotram 
श्री दुर्गा सप्तशती में देवी कवच के बाद अर्गला स्तोत्रम का पाठ किया जाता है। अर्गला का तात्पर्य है अग्रणी और सारी बाधाओं को दूर करने वाला। ऐसी मान्यता है कि किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए यह पाठ जरूरी है।
अर्गला स्तोत्रम के मंत्रों में हम देवी भगवती से कामना करते हैं कि हमारे शत्रुओं का नाश हो और जीवन में सफलता मिले। ऐसी मान्यता है कि इसका पाठ करने वाले की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। दुर्गा सप्तशती अर्गला स्तोत्रम में 25 श्लोक हैं जिनका अलग-अलग मतलब और महत्व बताया गया है। आइए इस स्तोत्र को विस्तार से जानें।
यदि कोई नवरात्रि (नवरात्रि में करें दुर्गा चालीसा का पाठ) के 9 दिनों तक नियमित रूप से दुर्गा कवच के बाद अर्गला स्तोत्रम का पाठ करता है तो उसकी ऊर्जा प्रणाली मजबूत होने के साथ दैनिक जीवन में कई लाभ मिलते हैं।
इस स्तोत्र का पाठ करने से जीवन में ढेर सारा धन, सफलता और प्रचुरता आती है। यह स्तोत्र आपकी नौकरी या व्यवसाय को आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है। जिन्हें नौकरी में समस्याएं हैं या व्यापार में घाटा हो रहा है वो इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करें।
देवी अर्गला स्तोत्रम दिमाग को तेज करने के साथ शरीर को स्वस्थ रखता है। इससे मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और जीवन में सफलता के योग बनते हैं।
यदि आप नियमित रूप से इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, तो माता दुर्गा का आशीष प्राप्त होता है।
- अर्गला स्तोत्र का पाठ करने से विजय मिलती है.
- इससे कष्ट दूर होते हैं और बाधाएं खत्म होती हैं.
- इससे किसी भी काम में सफलता मिलती है.
- इससे रूप, जय, और यश मिलता है.
- इससे मनोकामनाएं पूरी होती हैं.
- इससे जीवन में सफलता के योग बनते हैं.
- इससे दिमाग तेज होता है और शरीर स्वस्थ रहता है.
- इससे परिवार में सुख और शांति बनी रहती है.
- इससे आकस्मिक धन की प्राप्ति होती है.
- इससे बुरे ग्रहों का प्रकोप खत्म होता है.
- इससे शीघ्र विवाह होता है.
- इससे रोगों का नाश होता है.
- सरसो या तिल के तेल का दीपक जलाएं.
- चामुंडा देवी का ध्यान करें और उनसे संवाद करें.
- देवी भगवती के अर्गला स्तोत्र का संकल्प लें और अपनी इच्छा देवी के समक्ष व्यक्त करें.
- अर्गला स्तोत्र का यथासंभव तीन बार या सात बार पाठ करें.
॥ अथार्गलास्तोत्रम् ॥
ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुर्ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बाप्रीतयेसप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः॥
ॐ नमश्चण्डिकायै॥
मार्कण्डेय उवाचॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥1॥
जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि।
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते॥2॥
मधुकैटभविद्राविविधातृवरदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥3॥
महिषासुरनिर्णाशि भक्तानां सुखदे नमः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥4॥
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥5॥
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥6॥
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥7॥
अचिन्त्यरुपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥8॥
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥9॥
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥10॥
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥11॥
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥12॥
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥13॥
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥14॥
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥15॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥16॥
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥17॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥18॥
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥19॥
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥20॥
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥21॥
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥22॥
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥23॥
पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥24॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।
स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥25॥
॥ इति देव्या अर्गलास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥