मंगल शांति
आधार : मंगल शांति के लिये भी कर्मठगुरु में वर्णित विधि का आधार ग्रहण किया गया है।
मुहूर्त : मंगल शांति के लिये मंगलवार के दिन यदि स्वाति नक्षत्र प्राप्त हो तो उस दिन से नक्त व्रत का आरम्भ करना चाहिये और 7 मंगलवार तक नक्त व्रत करना चाहिये। सातवें मंगलवार के दिन विधिवत मंगल शांति करनी चाहिये। प्रथम मंगलवार को स्वाति नक्षत्र का योग मंगल शांति के मुहूर्त का विशेष निर्धारक है। सातवें मंगलवार को अन्य शांति मुहूर्त या अग्निवास आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती।
नियम : प्रथम मंगलवार से ही नक्तव्रत करे, मंगलव्रत में भोजन भूमि पर ही करे।
मंत्र जप : मंत्र जप का तात्पर्य निर्बलता और अशुभता दोनों का निवारण करना है। चंद्रमा के लिये मंत्र जप की संख्या 10000 बताई गयी है। यदि 10000 जप करना हो तो स्वयं 7 मंगलवार को किया जा सकता है किन्तु यदि चतुर्गुणित अर्थात 40000 जप करना हो तो 10 ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी जो 4000 जप करेंगे। आचार्य अलग से होंगे।

शांति कब करे : जैसा की बताया जा चुका है स्वाति नक्षत्रयुक्त मंगलवार से नक्तव्रत का आरम्भ और मंगल की अर्चना करे। इस प्रकार से प्रत्येक मंगलवार को करते हुये सातवें मंगलवार को शांति करे। अथवा यदि तत्काल आवश्यक हो तो उस समय किसी भी मंगलवार को अथवा मंगल नक्षत्र में किया जा सकता है। उस समय अग्निवास का विचार करना अपेक्षित होगा।
मंगल शांति विधि
पूर्वोक्त विधि से 6 मंगलवार व्रत करके सातवें मंगलवार को मंगल शांति करे। शांति हेतु पूजा स्थान पर मध्य में हवन वेदी बनाये व पूर्व में मंगल पूजा निमित्त वेदी (अष्टदल) बनाये। ईशानकोण में नवग्रह वेदी बनाये। नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन हेतु अष्टदल बना ले। सातवें मंगलवार को प्रातः काल पूर्ववत नित्यकर्म संपन्न करके भगवान सूर्य को ताम्र पात्र में रक्तपुष्पाक्षतयुक्त जल से अर्घ्य देकर पूजा स्थान पर सपत्नीक आकर आसन पर बैठे :
- ग्रंथि बंधन करके पवित्रीकरणादि करे।
- तत्पश्चात शान्ति पाठ अर्थात स्वस्तिवाचन करे।
- तत्पश्चात गणेशाम्बिका पूजन करे।

तत्पश्चात त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे। यहां ऐसा माना जा रहा है कि जप पूर्व ही कर लिया गया होगा। यदि जप भी शांति के दिन ही करना हो तो संकल्प में जप को भी जोड़ ले। यदि जप नहीं करना हो तो जप न जोड़े।
संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते ………… १ संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ………. २ मासे ………… ३ पक्षे ………… ४ तिथौ …………५ वासरे ………… ६ गोत्रोत्पन्नः ………… ७ शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) ममात्मनः श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तयर्थं मम कलत्रादिभिः सह जन्मराशेः सकाशात् नामराशेः सकाशाद्वा जन्मलग्नात् वर्षलग्नात् गोचराद्वा चतुर्थाष्टमद्वादशाद्यनिष्ट स्थान स्थित कुजेन सूचितं सूचीष्यमाणं च यत् सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादश शुभस्थानस्थितवदुत्तमफल प्राप्त्यर्थं तथा दशांतरदशोपदशा जनित पीडाल्पायुरधिदैवाधिभौतिक आध्यात्मिक जनित क्लेश निवृत्ति पूर्वक दीर्घायु शरीरारोग्य लाभार्थं परमैश्वर्यादि प्राप्त्यर्थं श्रीमंगल प्रसन्नतार्थं च मंगलशांति करिष्ये ॥
(१ संवत्सर का नाम, २ महीने का नाम, ३ पक्ष का नाम, ४ तिथि का नाम, ५ दिन का नाम, ६ अपने गोत्र का नाम, ७ ब्राह्मण शर्माऽहं, क्षत्रिय वर्माऽहं, वैश्य गुप्तोऽहं कहें)
- तत्पश्चात पुण्याहवाचन करे।
- फिर आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
- फिर हवन विधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे।
अग्नि स्थापन विधि
- परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे ।
- उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
- उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
- उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
- अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
- अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
- अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥
अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।
- फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
- फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
- हवन वेदी के पूर्व में अन्य वेदी पर अष्टदल बनाकर, चावल के पुञ्ज पर रजत कलश स्थापन करे पूर्णपात्र हेतु ताम्र का प्रयोग करे।
- फिर मंगल की सुवर्ण प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके कलश पर रखे ।
- उन्हें युगल रक्तवस्त्र, कुंकुम, भोज्यान्न, मिट्टी के पात्र में भूजा गया भूजा आदि से युक्त करके फिर षोडशोपचार पूजन करे।
- तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन द्रव्य : दधि-घृताक्त खैर समिधा, शाकल्य सहित।
- आरती आदि करके रजतकलश में खैर, देवदारु, तिल, आंवला आदि दे।
- फिर रजतकलश के जल से आचार्य यजमान का अभिषेक करें।
- फिर ग्रहस्नान करके मंगल प्रतिमा आचार्य को प्रदान करे।
- दान मंत्र : ॐ कुज कुप्रभवोऽपि त्वं मङ्गलः परिगद्यसे। अमङ्गलं निहत्याशु सर्वदा यच्छ मगलं ॥
मंगल मंत्र जप विधि
विनियोग : ॐ अग्निर्मूर्द्धेति मंत्रस्य विरूपाङ्गिरस ऋषिः अग्निर्देवता गायत्री छन्दः भौम प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥
न्यास विधि :
देहन्यास : ॐ अग्निः शिरसि ॥ मूर्द्धा ललाटे ॥ दिवः मुखे ॥ ककुत् हृदये ॥ पतिः उदरे ॥ पृथिव्या नाभौ ॥ अयं कट्यां ॥ अपा ᳪ जान्वोः ॥ रेता ᳪ सि गुल्फयोः ॥ जिन्वति पादयोः ॥
करन्यास : ॐ अग्निर्मूर्द्धा अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ दिवः ककुत् तर्जनीभ्यां नमः ॥ पतिः मध्यमाभ्यां नमः ॥ पृथिव्या अयम् अनामिकाभ्यां नमः ॥ अपा ᳪ रेता ᳪ सि कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ जिन्वति करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥
हृदयादिन्यास : ॐ अग्निर्मूर्द्धा हृदयाय नमः ॥ दिवः ककुत् शिरसे स्वाहा ॥ पतिः शिखायै वषट् ॥ पृथिव्या अयम् कवचाय हुँ ॥ अपा ᳪ रेता ᳪ सि नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ जिन्वति अस्त्राय फट् ॥
ध्यान :
रक्ताम्बरो रक्तवपुः किरीटी चतुर्भुजो मेषगतो गदाभृत्।
धरासुतः शक्तिधरश्च शूली सदायमस्मद्वरदः प्रसन्नः॥
मंत्र : ॐ अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपा ᳪ रेता ᳪ सि जिन्वति ॥
मंगल कवच
अस्य श्री मंगलकवचस्तोत्रमंत्रस्य कश्यप ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः, अङ्गारको देवता भौम पीडापरिहारार्थं जपे विनियोगः ॥
रक्तांबरो रक्तवपुः किरीटी चतुर्भुजो मेषगमो गदाभृत्
धरासुतः शक्तिधरश्च शूली सदा ममस्याद्वरदः प्रशांतः ॥
अंगारकः शिरो रक्षेन्मुखं वै धरणीसुतः। श्रवौ रक्तांबरः पातु नेत्रे मे रक्तलोचनः ॥
नासां शक्तिधरः पातु मुखं मे रक्तलोचनः। भुजौ मे रक्तमाली च हस्तौ शक्तिधरस्तथा ॥
वक्षः पातु वरांगश्च हृदयं पातु लोहितः। कटिं मे ग्रहराजश्च मुखं चैव धरासुतः ॥
जानुजंघे कुजः पातु पादौ भक्तप्रियः सदा। सर्वण्यन्यानि चांगानि रक्षेन्मे मेषवाहनः ॥
या इदं कवचं दिव्यं सर्वशत्रु निवारणम्। भूतप्रेतपिशाचानां नाशनं सर्व सिद्धिदम् ॥
सर्वरोगहरं चैव सर्वसंपत्प्रदं शुभम्। भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणां सर्वसौभाग्यवर्धनम् ॥
रोगबंधविमोक्षं च सत्यमेतन्न संशयः ॥
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे मंगलकवचं संपूर्णं ॥
मंगल स्तोत्र पाठ
रक्ताम्बरो रक्तवपु: किरीटी, चतुर्मुखो मेघगदो गदाधृक
धरासुत: शक्तिधरश्च शूली, सदा ममस्याद्वरदः: प्रशान्त: ॥
धरणीगर्भसंभूतं विद्युत्तेजसमप्रभं। कुमारं शक्तिहस्तं च मंगलं प्रणमाम्यहम
ऋणहर्त्रे नमस्तुभ्यं दुःखदारिद्रनाशिने। नमामि द्योतमानाय सर्वकल्याणकारिणे ॥
देवदानवगन्धर्व यक्षराक्षसपन्नगाः। सुखं यान्ति यतस्तस्मै नमो धरणि सूनवे ॥
यो वक्रगतिमापन्नो नृणां विघ्नं प्रयच्छति। पूजितः सुखसौभाग्यं तस्मै क्ष्मासूनवे नम: ॥
प्रसादं कुरु मे नाथ मंगलप्रद मंगल। मेषवाहन रुद्रात्मन पुत्रान देहि धनं यश: ॥
॥ ऋणमोचन मंगल स्तोत्र ॥
मंगलो भूमिपुत्रश्चऋणहर्ता धनप्रद:। स्थिरासनो महाकायः सर्वकामविरोधक:॥१॥
लोहितो लोहिताक्षश्च सामगानां कृपाकरः। धरात्मजः कुजो भौमोभूतिदो भूमिनन्दनः ॥२॥
अङ्गारको यमश्चैव सर्वरोगापहारकः। वृष्टेः कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रदः ॥३॥
एतानि कुजनामानि नित्यं यः श्रद्धया पठेत् । ऋणं न जायते तस्य धनं शीघ्रमवाप्नुयात् ॥४॥
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्तिहस्तं च मङ्गलं प्रणमाम्यहम्॥५॥
स्तोत्रमङ्गारकस्यैतत्पठनीयं सदा नृभिः। न तेषां भौमजा पीडास्वल्पापि भवति क्वचित्॥६॥
अङ्गारक महाभाग भगवन् भक्तवत्सल। त्वां नमामि ममाशेषमृणमाशु विनाशयः ॥७॥
ऋणरोगादिदारिद्रयं ये चान्ये चापमृत्यवः। भयक्लेशमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥८॥
अतिवक्रदुरारार्घ्य भोगमुक्तजितात्मनः। तुष्टो ददासि साम्राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्॥९॥
विरञ्चि शक्रविष्णूनां मनुष्याणां तु का कथा। तेन त्वं सर्वसत्वेन ग्रहराजो महाबल:॥१०॥
पुत्रान्देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गतः। ऋणदारिद्रयदुःखेन शत्रुणां च भयात्ततः ॥११॥
एभिर्द्वादशभि: श्लोकैर्य:स्तौति च धरासुतम्। महतीं श्रियमाप्नोतिह्यपरो धनदो युवा॥१२॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे भार्गवप्रोक्तं ऋणमोचन मंगल स्तोत्रम् सम्पूर्णं ॥